Tuesday, August 19, 2014

तू बता कहा जाऊं

आज बहुत समय बाद मिली ,
तो लिपट के रो पड़ी सहेली..
और बोली-मैंने अपनी पहली मुहब्बत की
एक-एक याद को अपने दिल के कमरे में सजाकर
बाहर से कुण्डी लगा दी थी.
सौ ताले लगा डाले अन्दर से
सिटकनी भी लगा दी
और बिखेर दिये दरवाजे के सामने कबाड़
ताकि अगर कोई कोशिश करे आने की अंदर,
तो शोर हो जाये और मै जाग जाऊँ..
पर हुआ तो कुछ और ही-
मै शोर से नहीं,
बांसुरी की धुन सुनकर जागी.
देखा तो दरवाजा खुला पड़ा था,
कबाड़ का कोई नामोनिशान नहीं था ....
बावली मेरी सहेली बोली-ये हो क्या रहा है..
देख न ये तो कोई और है,
जो निश्शब्द कर रहा है प्रवेश और उतर रहा है अंदर..
बेचैन मन और अंतर लिए देखती हूँ उधर,
जिधर कोने में खड़ी हैं पहले प्यार की दो निशानियां ...
तू बता कहा जाऊं.... !
बोझ कसमो का, बोझ रस्मो का तोडू तो कैसे ...!!
सही नहीं जाती खुद के साथ ये जंग !!!
जो हो रहा है अनायास,उसे रोकूँ तो कैसे !!!!

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